प्रचंड जीत से सराबोर सरकार ने महंगाई का उपहार जो जनता को लौटाया है वह महंगाई का बाजा जनता का जनाजा निकालने को काफी है। चुनाव के नतीजों का परिणाम महंगाई बम ने साबित कर दिया मानो यह चेतावनी है “वोट करोगे तुम, महंगाई बढाएंगे हम”। इस दर्दे महंगाई और बेदर्द सरकार का कहर बर्दाश्त करने के सिवाय जनता के पास कोई और चारा शेष भी तो नहीं लगता।
चुनावी लगाम से खींची महंगाई तब तक ही ठहरी रही जब तक चुनावी परिणाम सामने नहीं आए. नतीजे आते ही जिस रफ्तार से महंगाई दौड़ रही है रसोई गैस दुनिया की सरताज बन इठलाने लगी है। नींबू लहू निचोड़ रहा रहा है, पेट्रोल कार डीजल ट्रक सुलगा रहा है, सिलेंडर ने मानो चूल्हों को फिर जिंदा कर दिया है, सेब, अनार सोने के भाव तुल रहे है, तो वहीं सब्जी रानी थाली से उछल ठेंगा दिखा बोल रही है अब होगी महंगाई की मार। कितना सही कहा है नियाज हुसैन साहब ने…
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“क्या ख़बर खुद को ही बेचना पड़ जाए यहां
किसको मालूम सितम कैसे ये महंगाई करें”।
आखिर सरकार की ताजपोशी के साथ महंगाई जीत गई और कतार में खड़ी हो कतरा-कतरा पसीना बहाकर, सरकार बनाने वाली जनता महंगाई के कोल्हू में पिसने लगी है। जीत की दहाड़ और महंगाई का पहाड़ जनता की जान पर बना आया है। कौन सुनेगा ? किसे सुनाएं ? जब सरकार ही जीतकर महंगाई की गुलाम हो गई है। आय दोगुनी करने का वादा कर सरकार बनाने वाले महंगाई दोगुना कर विकास की मुनादी पीटते नहीं थक रहे, जबकि आम आदमी दिनभर थककर, टूटकर भी दो जून की रोटी की राह ही तकता नजर आ रहा है।
परिवार पर जुल्म बन टूटी इस महंगाई ने कमर तोड़ दी है। ऊपर से इस माहे-महंगाई में त्योहार का आना मानो कोढ़ में खाज हो गई हो। गुरबत के सताए गरीबी के दबाए त्योहार की खुशी मनाएं या बुझे चूल्हों का मातम। शायद इसीलिए मुनव्वर राणा साहब ने कमाल लिखा है कि…
“ऐ खाके वतन तुझ से मैं शर्मिंदा बहुत हूं
महंगाई के मौसम में यह त्योहार पड़ा है”।
घटते रोजगार, सिमटते व्यापार, छिनती नौकरी पर महंगाई डांस किसी अनहोनी की आहट से कम नहीं है। बेबसी कब फूट पड़े, गरीबी कब चितकार कर उठे, सड़कें कब जाम हो जाएं, कारखाने कब ठप्प हो जाएं कहा नहीं जा सकता। शौक को तो पहले ही निगल चुकी है महंगाई, अब निवाला निगलने पर आमादा हो गई मालूम पड़ती है। ऐसे में बेरोजगार, बेसहारा, बेघरों की बढ़ती फौज आखिर क्या करेगी?
फक्र से कहते हैं कि 80 करोड़ लोगों को मुफ्त का राशन बांटा, 20 करोड़ से बढ़कर गरीबों का दायरा 80 करोड़ को छू गया और साहेब नून, तेल, दाल के लिफाफे पर फोटो चस्पा कर, जश्न में मग्न है। गरीबी, गुरबत, मायूसी का मातम मनाया जाता है साहेब, उत्सव नहीं मगर इस सरकार को ये कौन समझाए?
मजबूरी महंगाई के रूप में देश के कोने-कोने में जा पसरी है। वह दर्द की इंतेहा और गरीबों के लिए जानलेवा है। सच ही लिखा है इस मातम-ए-महंगाई के दर्द को…
“जनता की आंखों में आंखें डालकर करीब से पूछो
महंगाई कैसे जान लेती है किसी गरीब से पूछो”।
वादों में झूठ का रंग चढ़ा जनता से सत्ता पाने वालों, यह ख्याल रहे वतन में रोजी-रोटी ही नहीं दे पाए तो क्या खाक किया ? वक्त बदलता है और बदलकर जब पूछेगा कि क्या बोलकर क्या किया ? वादों का जुमला किसने किया ? महंगाई की मार किसने दी ? महंगाई को डायन से डार्लिंग किसने बनाया ? तो आज के तने हुए सिर कल इतिहास के पन्नों में झुके हुए पाए जाएंगे। राज भी एक तंत्र है, जनता के सेवा सहयोग का साधन जुटाने का मंत्र है। लेकिन यह राजतंत्र जब कुछ पूंजीपतियों के हाथों का खिलौना बन महंगाई मंत्र बन जाए तो बोलना, लिखना, विरोध करना, लाजमी हो जाता है वरना गूंगों के देश में महंगाई बढ़ती रहेगी। बस इतना ही समझ आया साहिर होशियारपुर की कलम से
“वर्षों में एक जोगी लौटा जंगल से फिर जोत जगाई है
कहने लगा ये भोले शंकर शहरों में बहुत महंगाई है”।
पंडित संदीप, कंसल्टिंग एडिटर, हिन्दी ख़बर
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